Wednesday 31 August 2011

याद आती है मेरी?


हैरान होते थे मेरी बातों पर जब तुम 
और मैं मुस्कुराती थी हर बार तुम्हें चौंका कर

कभी जब दार्शनिक से बन जाते थे तुम
तो मैं सुना करती थी घन्टों मन्त्रमुग्ध होकर… :)


अब बादलों की तरह उडते हैं ख्यालात रोज़ मेरे कमरे में 
याद आती है मेरी? उन्हीं से पूछ्ती हूँ मैं बेचैन होकर

गुज़रे वक्त को छू लूँ किसी तरह ऐसी कोशिशें करती हूँ
जो अब नहीं हैं कहीं… तुम्हारे उन्हीं जादुई शब्दों में खोकर…



बस मन नहीं है


ये जो थोड़ी सी टूट फ़ूट हो गयी है दिल में…
उसे अब दुरुस्त करवाने का मन नहीं है…

ये जो ज़रा सा खालीपन है इस भरे भरे दिल में…
उसे अब किसी तरह भरवाने का मन नहीं है… 

दुआएं तो मेरी बिन मांगे कबूल होती हैं…
बस ये ख्वाहिश पूरी करवाने का मन नहीं है…

प्यारी लगे है मुझे खट्टी मीठी ज़िन्दगी मेरी…
किस्मत में और कुछ सुधरवाने का मन नहीं है…

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